राहत इन्दोरी - 3

अपनी पहचान मिटने को कहा जाता है.
बस्तिया छोड़ के जाने को कहा जाता है
पत्तिया रोज़ गिरा जाती है जहरीली हवा
और हमें पेड़ लगाने को कहा जाता है
कोई मौसम हो दुःख सुख में गुजरा कौन करता है |
परिंदों की तरह सबकुछ गवारा कौन करता है |
घरो की राख फिर देखेंगे पहले ये देखना है,
घरों को फूंक देने का इशारा कौन करता |
जिसे दुनिया कहा जाता है कोठे की तवाइफ़ है |
इशारा किसको करती है, नजारा कौन करता है |

राहत इन्दोरी -2

जिहालातो के अंधेरे मिटा के लौट आया |

मै आज साडी किताबे जलाके लौट आया |

वो अब भी बैठी सिसककर रही होगी |

मै अपना हाथ हवा में हिलाकर लौट आया |

ख़बर मिली है की सोना निकल रहा है वहा

मै जिस जमीं पे ठोकर लगाके आया |

Aggobai Dhaggobai


Aggobai Dhaggobai -

मराठी


Zopa Majhi Asali Tari -

रुपगंधा

मलमली तारुण्य माझे, तू पहाटे पांघरावे
मोकळ्या केसात माझ्या, तू जीवाला गुंतवावे

लागुनि थंडी गुलाबी, शिरशिरी यावी अशी ही
राजसा माझ्यात तू अन् मी तुझ्यामाजी भिनावे

कापर्‍या माझ्या तनूची तार झंकारुन जावी
रेशमी संगीत स्पर्शाचे, पुन्हा तू पेटवावे

रे तुला बाहुत माझ्या, रुपगंधा जाग यावी
मी तुला जागे करावे, तू मला बिलगून जावे

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे

आईना क्यूँ न दूँ के तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहाँ से लाऊँ के तुझसा कहें जिसे

हसरत ने ला रखा तेरी बज़्म-ए-ख़याल में
गुलदस्ता-ए-निगाह सुवेदा कहें जिसे

फूँका है किसने गोशे मुहब्बत में ऐ ख़ुदा
अफ़सून-ए-इन्तज़ार तमन्ना कहें जिसे

सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डलिये
वो एक मुश्त-ए-ख़ाक के सहरा कहें जिसे

है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ
शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे

दरकार है शिगुफ़्तन-ए-गुल हाये ऐश को
सुबह-ए-बहार पंबा-ए-मीना कहें जिसे

"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

धमकी में मर गया

धम्‌की में मर गया जो न बाब-ए नबर्द था
इश्क़-ए नबर्द-पेशह तलबगार-ए मर्द था

था ज़िन्दगी में मर्ग का खटका लगा हुआ
उड़ने से पेशतर भी मिरा रन्ग ज़र्द था

तालीफ़-ए नुसख़हहा-ए वफ़ा कर रहा था मैं
मज्मू`अह-ए ख़याल अभी फ़र्द फ़र्द था

दिल ता जिगर कि साहिल-ए दरया-ए ख़ूं है अब
उस रहगुज़र में जलवह-ए गुल आगे गर्द था

जाती है कोई कश्मकश अन्दोह-ए `इश्क़ की
दिल भी अगर गया तो वुही दिल का दर्द था

अह्बाब चारह-साज़ी-ए वहशत न कर सके
ज़िन्दां में भी ख़याल बियाबां-नवर्द था

यह लाश-ए बे-कफ़न असद-ए ख़स्तह-जां की है
हक़ मग़्फ़रत करे `अजब आज़ाद मर्द था

चल मेरे साथ ही चल

चल मेरे साथ ही चल ऐ मेरी जान-ए-ग़ज़ल
इन समाजों के बनाये हुये बंधन से निकल, चल

हम वहाँ जाये जहाँ प्यार पे पहरे न लगें
दिल की दौलत पे जहाँ कोई लुटेरे न लगें
कब है बदला ये ज़माना, तू ज़माने को बदल, चल

प्यार सच्चा हो तो राहें भी निकल आती हैं
बिजलियाँ अर्श से ख़ुद रास्ता दिखलाती हैं
तू भी बिजली की तरह ग़म के अँधेरों से निकल, चल

अपने मिलने पे जहाँ कोई भी उँगली न उठे
अपनी चाहत पे जहाँ कोई दुश्मन न हँसे
छेड़ दे प्यार से तू साज़-ए-मोहब्बत-ए-ग़ज़ल, चल

पीछे मत देख न शामिल हो गुनाहगारों में
सामने देख कि मंज़िल है तेरी तारों में
बात बनती है अगर दिल में इरादे हों अटल, चल

स्वतंत्रता दिवस की पुकार

पन्द्रह अगस्त का दिन कहता -
आज़ादी अभी अधूरी है।
सपने सच होने बाक़ी हैं,
रावी की शपथ न पूरी है॥

जिनकी लाशों पर पग धर कर
आजादी भारत में आई।
वे अब तक हैं खानाबदोश
ग़म की काली बदली छाई॥

कलकत्ते के फुटपाथों पर
जो आंधी-पानी सहते हैं।
उनसे पूछो, पन्द्रह अगस्त के
बारे में क्या कहते हैं॥

हिन्दू के नाते उनका दुख
सुनते यदि तुम्हें लाज आती।
तो सीमा के उस पार चलो
सभ्यता जहाँ कुचली जाती॥

इंसान जहाँ बेचा जाता,
ईमान ख़रीदा जाता है।
इस्लाम सिसकियाँ भरता है,
डालर मन में मुस्काता है॥

भूखों को गोली नंगों को
हथियार पिन्हाए जाते हैं।
सूखे कण्ठों से जेहादी
नारे लगवाए जाते हैं॥

लाहौर, कराची, ढाका पर
मातम की है काली छाया।
पख़्तूनों पर, गिलगित पर है
ग़मगीन ग़ुलामी का साया॥

बस इसीलिए तो कहता हूँ
आज़ादी अभी अधूरी है।
कैसे उल्लास मनाऊँ मैं?
थोड़े दिन की मजबूरी है॥

दिन दूर नहीं खंडित भारत को
पुनः अखंड बनाएँगे।
गिलगित से गारो पर्वत तक
आजादी पर्व मनाएँगे॥

उस स्वर्ण दिवस के लिए आज से
कमर कसें बलिदान करें।
जो पाया उसमें खो न जाएँ,
जो खोया उसका ध्यान करें॥

आग जलती रहे

एक तीखी आँच ने

इस जन्म का हर पल छुआ,

आता हुआ दिन छुआ

हाथों से गुजरता कल छुआ

हर बीज, अँकुआ, पेड़-पौधा,

फूल-पत्ती, फल छुआ

जो मुझे छूने चली

हर उस हवा का आँचल छुआ

... प्रहर कोई भी नहीं बीता अछूता

आग के संपर्क से

दिवस, मासों और वर्षों के कड़ाहों में

मैं उबलता रहा पानी-सा

परे हर तर्क से

एक चौथाई उमर

यों खौलते बीती बिना अवकाश

सुख कहाँ

यों भाप बन-बन कर चुका,

रीता, भटकता

छानता आकाश

आह! कैसा कठिन

... कैसा पोच मेरा भाग!

आग चारों और मेरे

आग केवल भाग!

सुख नहीं यों खौलने में सुख नहीं कोई,

पर अभी जागी नहीं वह चेतना सोई,

वह, समय की प्रतीक्षा में है, जगेगी आप

ज्यों कि लहराती हुई ढकने उठाती भाप!

अभी तो यह आग जलती रहे, जलती रहे

जिंदगी यों ही कड़ाहों में उबलती रहे ।

विदा के बाद प्रतीक्षा

परदे हटाकर करीने से
रोशनदान खोलकर
कमरे का फर्नीचर सजाकर
और स्वागत के शब्दों को तोलकर
टक टकी बाँधकर बाहर देखता हूँ
और देखता रहता हूँ मैं।

सड़कों पर धूप चिलचिलाती है
चिड़िया तक दिखायी नही देती
पिघले तारकोल में
हवा तक चिपक जाती है बहती बहती,
किन्तु इस गर्मी के विषय में किसी से
एक शब्द नही कहता हूँ मैं।

सिर्फ़ कल्पनाओं से
सूखी और बंजर ज़मीन को खरोंचता हूँ
जन्म लिया करता है जो ऐसे हालात में
उनके बारे में सोचता हूँ
कितनी अजीब बात है कि आज भी
प्रतीक्षा सहता हूँ।

एक आशीर्वाद

जा तेरे स्वप्न बड़े हों।
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें।
चाँद तारों सी अप्राप्य ऊचाँइयों के लिये
रूठना मचलना सीखें।
हँसें
मुस्कुराऐं
गाऐं।
हर दीये की रोशनी देखकर ललचायें
उँगली जलायें।
अपने पाँव पर खड़े हों।
जा तेरे स्वप्न बड़े हों।

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है

इस नदी की धार में ठंडी हवा आती तो है,
नाव जर्जर ही सही, लहरों से टकराती तो है।

एक चिनगारी कही से ढूँढ लाओ दोस्तों,
इस दिए में तेल से भीगी हुई बाती तो है।

एक खंडहर के हृदय-सी, एक जंगली फूल-सी,
आदमी की पीर गूंगी ही सही, गाती तो है।

एक चादर साँझ ने सारे नगर पर डाल दी,
यह अंधेरे की सड़क उस भोर तक जाती तो है।

निर्वचन मैदान में लेटी हुई है जो नदी,
पत्थरों से, ओट में जा-जाके बतियाती तो है।

दुख नहीं कोई कि अब उपलब्धियों के नाम पर,
और कुछ हो या न हो, आकाश-सी छाती तो है।

कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं

कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं

मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहां
थाम ले कोई मेरा हाथ मुझे होश नहीं

आंसुओं और शराबों में गुज़र है अब तो
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं

जाने कुआ टूटा है पैमाना दिल है मेरा
बिखरे बिखरे हैं ख़यालात मुझे होश नहीं

ठेकेदार भाग लिया

फावडे ने
मिटटी काटने से इंकार कर दिया
और
बदरपुर पर जा बैठा
एक और |
ऐसे में
तसले को मिटटी धोना
कैसे गवारा होता ?
काम छोड़ आ गया
फावडे की बगल में |
धुर्मुत की कदमताल ... रुक गई,
कुदाल के इशारे पर
तत्काल,
जाल ज्यों ही कुढ़ती हुई
रोती बड़बड़ाती हुई
आ गिरी औंधे मुंह
रोडी के ऊपर |
- आख़िर ये कब तक?
कब तक सहेंगे हम ?

ये इंतजार ग़लत है की शाम हो जाए

ये इंतजार ग़लत है की शाम हो जाए
जो हो सके तो अभी दौर-ऐ-जाम हो जाए

खुदा-न ख्वास्ता पीने लगे जो वाइज़ भी
हमारे वास्ते पीना हराम हो जाए

मुझ जैसे रिंद को भी तू ने हश्र में या रब
बुला लिया है तो कुछ इंतज़ाम हो जाए

वो सहन-ऐ-बाग़ में आए हैं माय -काशी के लिए
खुदा करे के हर इक फूल जाम हो जाए

मुझे पसंद नहीं इस पे गाम -जान होना
वो रह-गुज़र जो गुज़र-गाह-ऐ-आम हो जाए

वय निघून गेले

देखावे बघण्याचे वय निघून गेले
रंगांवर भुलण्याचे वय निघून गेले

गेले ते उडुन रंग
उरले हे फिकट संग
हात पुढे करण्याचे वय निघून गेले

कळते पाहून हेच
हे नुसते चेहरेच
चेहऱ्यांत जगण्याचे वय निघून गेले

रोज नवे एक नाव
रोज नवे एक गाव
नावगाव पुसण्याचे वय निघून गेले

रिमझिमतो रातंदिन
स्मरणांचा अमृतघन
पावसात भिजण्याचे वय निघून गेले

हृदयाचे तारुणपण
ओसरले नाही पण
झंकारत झुरण्याचे वय निघुन गेले

एकटाच मज बघून
चांदरात ये अजून
चांदण्यात फिरण्याचे वय निघून गेले

आला जर जवळ अंत
कां हा आला वसंत?
हाय,फुले टिपण्याचे वय निघून गेले

मधुशाला

मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'किस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ

मौनाची भाषांतरे

चल आता बोलुन घेऊ ! बोलुन घेऊ थोडे !

सुकण्याआधी माती आणि जाण्याआधी तडे !

संपत आलाय पाऊसकाळ ! विरत चाललेत मेघ !

विजेचीही आता सतत उठ्त नाही रेघ !

मृदगंधाने आवरुन घेतलाय धुंदावण्याचा खेळ!

मोरपंखी पिसर्‍यांनी ही मिटण्याची वेळ !

सावाळ्या हवेत थोडं मिसळ्त चाललंय उन्ह !

खळखळणार्री नदी आता वाहते जपून जपून !



चल आता बोलुन घेऊ ! बोलुन घेऊ थोडे !

लक्षात ठेव अर्थांपेक्षा शब्दच असतात वेडे !

मनामधला कानाकोपरा चाचपून घे नीट !

लपले असतील अजुन कोठे चुकार शब्द धीट !

नजरा, आठवण, शपथा . . . सार्‍यांस उन्ह द्यायला हवे !

जाणयाधी ओले मन वाळायला तर हवे !

हळवी बिळवी होत पाहू नकोस माझ्याकडे

माझ्यापेक्षा लक्ष दे माझ्या बोलण्याकडे

भेटण्याआधीच निश्चित असते जेव्हा वेळ जायची !

समजुतदार मुलांसारखी खेळणी आवरून घ्यायची !

एकदम कर पाठ आणि मन कर कोरे !

भेटलो ते ही बरे झाले ! चाललो ते ही बरे !

मी ही घेतो आवरून सारे ! तू ही सावरून जा !

तळहातीच्या रेषांमधल्या वळणावरून जा !

खुदा-बिदा असलाच तर मग त्यालाच सोबत घे !

' करार पूर्ण झाला ' अशी तेवढी दे !

मां

बेसन की सोंधी रोटी पर
खट्टी चटनी जैसी मां
याद आती है चौका-बासन
चिमटा फुकनी जैसी मां

बांस की खुर्री खाट के ऊपर
हर आहट पर कान धरे
आधी सोई आधी जागी
थकी दोपहरी जैसी मां

चिड्रियों के चहकार में गुंजे
राधा-मोहन अली-अली
मुर्गे की आवाज़ से खुलती
घर की कुंडी जैसी मां

बिवी, बेटी, बहन, पड्रोसन
थोडी थोडी सी सब में
दिन भर इक रस्सी के ऊपर
चलती नटनी जैसी मां

बांट के अपना चेहरा, माथा,
आंखें जाने कहां गई
फटे पुराने इक अलबम में
चन्चल लड्रकी जैसी मां

पहिला पाऊस पडतो तेंव्हा

पहिला पाऊस पडतो तेंव्हा
एकच काम करायचं...
हातातली कामं टाकुन देउन
पावसात जाऊन भिजायचं!

आपल्या अंगावर झेलून घ्यायच्या
कोसळणार्या धारा
श्वासांमध्ये भरून घ्यायचा
सळाळणारा वारा

कानांमधे साठवुन घ्यायचे
गडगडणारे मेघ
डोळ्यांमध्ये भरुन घ्यायची
सौदामिनीची रेघ

पावसाबरोबर पाऊस बनून
नाच नाच नाचायचं
अंगणामधे, मोगर्यापाशी
तळं होऊन साचायचं!

आपलं असलं वागणं बघुन
लोक आपल्याला हसतील
आपला स्क्रू ढिला झाला
असं सुध्दा म्हणतील

ज्यांना हसायचं त्यांना हसू दे
काय म्हणायचं ते म्हणू दे
त्यांच्या दुःखाच्या पावसामधे
त्यांचं त्यांना कण्हू दे

असल्या चिल्लर गोष्टींकडे
आपण दुर्लक्ष करायचं!
पहिला पाऊस एकदाच येतो
हे आपण लक्षात ठेवायचं

कुणाचे इतकेही

कुणाच्या इतक्याही जवळ जावू नये
की आपल्याला त्याची सवय व्हावी
तडकलेच जर ह्रुदय कधी
जोडताना असह्य वेदना व्हावी

डायरीत कुणाचे नाव इतकीही येऊ नये
की पानांना ते नाव जड व्हावे
एक दिवस अचानक त्या नावाचे
डायरीत येणे बन्द व्हावे

स्वप्नात कुणाला असेहि बघु नये
की आधाराला त्याचे हात असावे
तुटलेच जर स्वप्न अचानक
हातात आपल्या काहिच नसावे

कुणाला इतकाही वेळ देऊ नये
की आपल्या क्षणाक्षणावर त्याचा अधिकार व्हावा
एक दिवस आरशासमोर आपनास
आपलाच चेहरा परका व्हावा

कुणाची इतकीही ओढ नसावी
की पदोपदि आपण त्याची वाट बघावी
आणि त्याची वात बघता बघता
आपलीच वाट दीशाहीन व्हावी

कुणाचे इतकेही ऐकू नये
की कानात त्याच्याच शब्दांचा घुमजाव व्हावा
आपल्या ओठांतुनही मग
त्याच्याच शब्दांचा ऊच्चार व्हावा

कुणाची अशीही सोबत असू नये
की प्रत्येक स्पंदनात ती जाणवावी
ती साथ गमवण्याच्या केवळ भीतीने
डोळ्यात खळकन अश्रु जमावेत

काहीतरी करून दाखवायचय

आयुष्याला fullstop लागायच्या आधी
काहीतरी करून दाखवायचय,
लाखोन्च्या गर्दीत स्वतःसाठी
'red carpet' बनवायचय !!

आयुष्याला fullstop लागायच्या आधी
काहीतरी करून दाखवायचय,
आरशासमोर उभ राहून
नजर वर करून 'त्याला' बघायचय,
ताठ मानेनेच 'त्या' समोरच्याला विचारायचय,
तू फ़क्त बोल,अजून कोणत क्षितिज गाठायचय!!

आयुष्याला fullstop लागायच्या आधी
काहीतरी करून दाखवायचय,
सर्वान्च्या मनात एक छोटस
घर करून राहायचय,
माझ्या नुसत्या आठवणीन्तूनच
दुःखी मनान्ना हसवायचय,
एकदा का fullstop लागला
की आठवणीन्तूनच मला पुन्हा जगायचय

हृदय अजून मराठी आहे

विदेशी कपडे घातले तरी
हृदय अजून मराठी आहे
तोडून तुटत नाहीत
या मजबूत रेशीम गाठी आहेत

पिझा, बर्गर खाल्ल्यावरही
पोट पुरणपोळीच मागतं
ईंग्रजी पुस्तकं वाचली तरी
मन मराठी चारोळीच मागतं

मात्रुभूमि सोडली की
आईपासून दूर गेल्यासारखं वाटतं
भाषा सोडली की
अस्तित्व हरवल्यासारखं वाटतं

वडाची झाडं मोठी होऊनही
परत मातृभूमिकडे झुकतात
कितीही दूर गेलं तरी
पाय परत मातृभूमिकडेच वळतात

काहीही बदललं तरी
हृदय अजून मराठी आहे

ती येणार...

फ़ुल स्टॉप नाही तर निदान कॉमा तरी…..
शब्द धरताहेत भोवताली फ़ेर
ती येणार.. जन्म घेणार म्हणून
लेखणी उतावीळ सळसळते आहे
ती येणार.. जन्म घेणार म्हणून
शुभ्र को-या कागदाचा कोरा वास
उर भरून घेतोय श्वास
समरस अर्थगंधात होण्यासाठी
ती येणार.. जन्म घेणार म्हणून
सारी तयारी झालीय..आता फ़क्त वाट
ती येणार.. जन्म घेणार म्हणून
मलाही येऊ घातल्यात कळा आतल्या आत
आत्ता फ़ुटेल वाचा…आत्ता होईल जन्म
एका नव्या कवितेचा…
पण…
दाबून ठेवल्यात त्या

मैत्री

रातोरात रडवणारी
आसवाणी भीजवणारी
हृदयात प्रेमाच नव घर करणारी

मैत्री आकाराने लहान
पण अर्थाने मात्र महान असते

रक्ताच्या नात्यापेक्षा मैत्रीची नाती बरी असतात
कारण ती रक्ताच्या नात्याइतकीच खरी असतात

मैत्रीत नसते वस्तुंची देवाण-घेवाण
मैत्रीत असते भावनांची जान

मैत्री नसावी सूर्यासारखी तापणारी
मैत्री असावी सावलीप्रमाणे शांत करणारी

कळतनकळत आपल्या सुख-दुखात सामवणार, डोळ्यात अश्रू जागवणार
जेव्हा कोणी भेटत तेव्हा जीवनाचे अर्थच बदलतात

मैत्रीत घालवलेला प्रत्येक क्षण असतो अनमोल
मैत्रीत असतो मनमनाचा समतोल

मैत्री अशीच आसावी कधी न संपणारी
जशी.............................

मापदण्ड बदलो

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम,
जुए के पत्ते सा
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।
मुझ पर हर ओर से चोटें पड़ रही हैं,
कोपलें उग रही हैं,
पत्तियाँ झड़ रही हैं,
मैं नया बनने के लिए खराद पर चढ़ रहा हूँ,
लड़ता हुआ
नयी राह गढ़ता हुआ आगे बढ़ रहा हूँ ।

अगर इस लड़ाई में मेरी साँसें उखड़ गईं,
मेरे बाज़ू टूट गए,
मेरे चरणों में आंधियों के समूह ठहर गए,
मेरे अधरों पर तरंगाकुल संगीत जम गया,
या मेरे माथे पर शर्म की लकीरें खिंच गईं,
तो मुझे पराजित मत मानना,
समझना –
तब और भी बड़े पैमाने पर
मेरे हृदय में असन्तोष उबल रहा होगा,
मेरी उम्मीदों के सैनिकों की पराजित पंक्तियाँ
एक बार और
शक्ति आज़माने को
धूल में खो जाने या कुछ हो जाने को
मचल रही होंगी ।
एक और अवसर की प्रतीक्षा में
मन की क़न्दीलें जल रही होंगी ।

ये जो फफोले तलुओं मे दीख रहे हैं
ये मुझको उकसाते हैं ।
पिण्डलियों की उभरी हुई नसें
मुझ पर व्यंग्य करती हैं ।
मुँह पर पड़ी हुई यौवन की झुर्रियाँ
क़सम देती हैं ।
कुछ हो अब, तय है –
मुझको आशंकाओं पर क़ाबू पाना है,
पत्थरों के सीने में
प्रतिध्वनि जगाते हुए
परिचित उन राहों में एक बार
विजय-गीत गाते हुए जाना है –
जिनमें मैं हार चुका हूँ ।

मेरी प्रगति या अगति का
यह मापदण्ड बदलो तुम
मैं अभी अनिश्चित हूँ ।

मैं चाहता था

‘मैं चाहता था ख़ुद से मुलाक़ात हो मगर
आईने मेरे क़द के बराबर नही मिले ……..’

‘मुकाबिल आइना है और तेरी गुलकारियां जैसे…….
सिपाही कर रहा हो ज़ंग की तय्यारियां जैसे……… ‘

‘मैंने मुल्कों की तरह लोगों के दिल जीते हैं ….
ये हुकूमत किसी तलवार की मोहताज नही…

लोग होंठों पे सजाये हुए फिरते है मुझे
मेरी शोहरत किसी अखबार की मोहताज नही……’

‘जितना देख आये हैं अच्छा है यही काफ़ी है ……
अब कहाँ जायें के दुनिया है यही काफ़ी है..’

कहाँ तो तय था

कहाँ तो तय था

कहाँ तो तय था चिरागां, हरेक घर के लिए,
कहाँ चिराग मयस्सर नहीं, शहर के लिए।

दरख्तों के साए मैं धुप लगती है,
चलो यहाँ से चलें उम्र भर के लिए।

न हो कमीज तो पांवों से पेट ढक लेंगे,
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।
खुदा नहीं , न सही आदमी का ख्वाब सही,
कोई हसीं नजारा तो है नजर के लिए।

वे मुतमईन हैं की पत्थर पिघल नहीं सकता,
मैं बेकरार हूँ आवाज मैं असर के लिए।

तेरा निजाम है सिल दे जुबान शायर की,
ये अहतियात जरूरी है इस बहार के लिए।

जियें तो अपने बगीचे मैं गुलमोहर के तले,
मरें तो गैर की गलियों मैं गुलमोहर के लिए।

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